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रविवार, 12 मई 2019

                     मां तुझे भूला ना पाया !


माँ!

माँ
एक दिवस मैं रूठा था

बडा ही स्वाभिमानी बन, उऋण हो जाने को
तुमसे भी विरक्त हो जाने को,
त्यागी बन जाने को !
घर त्याग चला कहीं दूर वन को
ध्यानिष्ठ हुआ पर ध्यान नहीं , न शांति होती मन को
यह चक्र सतत् चलता रहा।
पर जननी ! तेरी याद कहाँ भूलता रहा !!
पर नहीं, तप तो करना है;
त्याग धर्म में मरना है,
यह सोच अनवरत् उर्ध्व ध्यान में
हो समाधिस्थ तपः क्षेत्र में,
मन, तन से दृढ हो तप पूर्ण किया
पर नहीं शांति थी ना सुस्थिरता, 

क्या ऐसा अपूर्ण हुआ !!!
बुझा हुआ अब संचित उत्साह था 
नहीं कहीं पूर्ण प्रवाह था ;
अचानक क्षुधा की प्यास लगती
माँ !!!
तेरी कृपा की आस लगती
ममतामयी छाया न भूलती;
        दोपहरी तपी और पाँव जले
        पर कहाँ सघन छाया?
माँ!
तेरी आँचल न भूला पाया; 
हर ओर तुम्हारी थी छाया !

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           ✍🏻 आलोक पाण्डेय
                  ( वाराणसी , भारतभूमि )