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शनिवार, 8 मई 2021

स्वर्गारोहिणी पर्वत शिखर (जय बद्री विशाल) से सतोपंथ स्वर्गारोहण की मनोरम यात्रा

 

Swargarohini uttrakhand

जय बद्री विशाल संपूर्ण विश्व लोक में सबसे सर्वश्रेष्ठ स्थान है और भारत में सबसे सर्वश्रेष्ठ स्थान है!

श्री बद्री धाम जहां पर स्वयं नारायण हर पल हर घड़ी विराजमान रहते हैं संपूर्ण सृष्टि में श्री नारायण का प्रिय स्थान और प्राणी को मोक्ष पाने का एकमात्र स्थान श्री बद्री धाम और यहीं से एक रास्ता जाता है जहां से प्राणी शरीर के सहित स्वर्ग जा सकता है

जिसकी यात्रा सब यात्राओं से सर्वश्रेष्ठ है और यह स्थान है स्वर्गारोहिणी यानी कि स्वर्ग जाने का दुनिया में एक मात्र स्थान स्वर्गारोहिणी जहां से धर्मराज युधिष्ठिर शरीर के सहित स्वर्ग गए तथा यह वही स्थान है जहां पर युधिष्ठिर को लेने के लिए पुष्पक विमान आया था!

यहीं पर है दुनिया का सबसे पवित्र और सबसे बड़ा तीर्थ सतोपंथ सरोवर जहां पर स्वयं त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश एकादशी के दिन इस पवित्र सरोवर में स्नान आदि करके तपस्या करते हैं!यह वह तपस्थली है जिसे प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े संत मुनि जन लालायित रहते हैं!

आइए अब स्वर्गारोहिनी की यात्रा शुरू करते हैं! जो कि हर प्राणी के लिए अति दुर्लभ है जिनके दर्शन मात्र से ही यात्री धन्य हो जाता है!

जब द्वापर युग में महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात पांडवों को अपना राजपाट हासिल हुआ था उसके कई वर्षों बाद पांडवों ने स्वर्गारोहिणी की यात्रा आरंभ की थी!

बद्रीनाथ से आगे चलते हुए मां सरस्वती के साक्षात दर्शन होते हैं अन्य जगह मां सरस्वती अदृश्य रूप में रहती है जो भी प्राणी मां सरस्वती में स्नान ध्यान पूजा आदि करते हैं उनकी कुल में कभी कोई अज्ञानी नहीं होता! सरस्वती नदी का प्रभाव इतना तीव्र है की यात्री देखकर एक बार डर ही जाता है

जब पांच पांडव द्रोपती सहित स्वर्ग गए थे तो यहीं से गए थे नदी के प्रभाव को देखकर द्रौपदी डर गई थी अतः नदी को पार नहीं कर पाई यह देख कर भीम ने एक विशाल शिला को उठाकर दोनों पर्वतों के मध्य रख दिया अतः द्रौपदी उस शीला के ऊपर से होकर पार हो गई तब से इस शीला को भीम शिला के नाम से जाना जाता है!

थोड़ा आगे जाकर एक कुलदेवी का मंदिर आता है शास्त्रों के अनुसार द्रोपति इसी मंदिर तक ही जा सकी और इसी स्थान पर अपना शरीर त्याग दिया था और तब से यहां पर देवी के रूप में पूजी जाती हैं

श्री बद्री धाम में करोड़ों यात्री आते हैं परंतु सतोपंथ स्वर्गारोहिणी की यात्रा चंद प्राणी ही कर सकते हैं या फिर जिस पर भगवान की अति कृपा होती है वही प्राणी स्वर्गारोहिणी की यात्रा कर सकता है आइए इस यात्रा के बारे में पढ़ते हैं की विद्वान क्या कहते हैं|

सतोपंथ यानी सत्य पथ अर्थात जहां सत्य ही सत्य है और जीवन का सत्य क्या है जीवन का सत्य भगवान नारायण को प्राप्त करना ही जीवन का अंतिम सत्य है!

स्वर्गारोहिनी पर्वत स्वर्ग की सीढ़ी के रूप में दिखाई पड़ता है श्री बद्रीनाथ धाम से सतोपंथ की दूरी 25, 26 किलोमीटर की दूरी पर है यह पैदल मार्ग माणा गांव की ओर जाता है! 2 किलोमीटर बाद एक शिला पर नाग नागिन का जोड़ा है और यहीं से प्राकृतिक नजारे शुरू हो जाते हैं|

3 किलोमीटर की दूरी पर माता मूर्ति का मंदिर है माता मूर्ति धर्म की पत्नी है और भगवान श्री नर नारायण की माता है यहां पर वर्ष में एक बार बहुत बड़ा मेला लगता है भगवान श्री नर नारायण बावन द्वादशी के दिन यहां अपनी माता के पास आते हैं और भोजन पाते हैं यात्री यहां पर पूजा अर्चना करके मां का आशीर्वाद लेकर आगे चल पड़ते हैं!

प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेकर हम पहुंच गए हैं आनंदवन! इसके पश्चात एक जगह ग्लेशियर आता है थोड़ी चढ़ाई के बाद एक मैदान सा आ जाता है यहां पर यात्री विश्राम करते हैं सामने अलकनंदा के पार 6 फुटी पगडंडी है जो वसुधारा तक जाती है यह वसुधारा साधारण नहीं है स्कंद पुराण में इस झरने की विशेषता लिखी हुई है कि जो प्राणी पाखंडी एवं पापी हो उस पर इस धारा का जल नहीं गिरता!

आगे चलकर विशाल ऊंचाई वाले पर्वत पर अनगिनत भोजपत्र के वृक्ष मिलेंगे पूर्व काल में ऋषि मुनि इन भोज पत्रों की छाल निकालकर उन पर पुराण लिखते थे मां लक्ष्मी जी प्रकृति का रूप बनकर यहां पर वास करती हैं जब पांच पांडव स्वर्ग की ओर अपनी यात्रा कर रहे थे तो नकुल लक्ष्मी बन तक ही जा सका और यहां पर नकुल ने अपना शरीर त्याग दिया था!

यहां का मौसम कभी भी बिगड़ सकता है और शाम को तो अक्सर बारिश होती है यात्री स्वर्गारोहिणी का पहला विश्राम लक्ष्मी बन मैं ही करते हैं आसपास छोटी-छोटी गुफाएं हैं दूसरे दिन सुबह-सुबह यात्री ओम नमो नारायण का जाप करते हुए अपनी यात्रा प्रारंभ करते हैं कुछ यात्री यहीं से वापस लौट जाते हैं यहां पर जो यात्री नंगे पांव यात्रा करता है उसे एक कदम से एक अश्वमेघ का फल प्राप्त होता है!

आगे चलकर सामने एक पहाड़ दिखाई देता है इस पहाड़ से दो घाटिआ नजर आती हैं इसमें से 1 घाटी का रास्ता अलकापुरी को जाता है और दूसरी घाटी का रास्ता सतोपंथ स्वर्गारोहिणी की ओर जाता है और अलकापुरी से ही मां अलकनंदा का उद्गम स्थल है ग्लेशियर के बीच से मां अलकनंदा निकलती है वास्तव में मां अलकनंदा स्वर्गारोहिणी के पास विष्णु कुंड से निकलकर अलकापुरी में दिखाई देती है इसलिए इसको विष्णुपदई गंगा कहते हैं!

आगे चलकर सामने ही एक दीवार नुमा पहाड़ दिखाई देता है इस दीवार नुमा पहाड़ पर हजारों झरने दिखाई देते हैं इन्हें देख कर यात्री अपनी थकान भूल जाता है प्रभु की अपार माया के दर्शन करता है ऐसा मनमोहक दृश्य शायद ही संसार में कहीं देखने को मिले इन दृश्यों को देखकर यात्री गदगद हो जाता है अतः इस स्थान को सहस्त्रधारा के नाम से जाना जाता है, पांच पांडवों में से सहदेव इस स्थान तक ही आ सके थे और सहस्त्रधारा के पास अपना शरीर त्याग दिया था!

इस यात्रा में यात्रियों को कुछ कुत्ते जरूर मिलते हैं परंतु ये कुत्ते ऐसे होते हैं जो यात्रियों के साथ चलते हैं और यात्रियों को सतोपंथ तक छोड़ कर आते हैं बड़े आश्चर्य की बात है पांच पांडव स्वर्ग कई तो उन्हें भी रास्ते में एक स्वान मिला था यह स्वान साधारण नहीं था कल की युधिष्ठिर की परीक्षा लेने के लिए स्वान के भेष में स्वयं धर्मराज थे स्वर्गारोहिणी की यात्रा में युधिष्ठिर के चार भाई और पत्नी ने उनका साथ छोड़ दिया था

परंतु स्वान उनके साथ साथ चलता रहा कोई भी यात्री यदि स्वर्गारोहिणी जाता है तो उनको आज भी यह स्वान मिल जाते हैं और आपको स्वर्गारोहिणी तक छोड़ कर आते हैं इनको देख कर लगता है यह सदियों से रीत चली आई है कि जो भी सत्य पथ के मार्ग पर चले तो धर्म उनके साथ आज भी है सहस्त्रधारा को पार करके एक तलवार नुमा पहाड़ी पर चलना पड़ता है और दोनों और खाई है बिल्कुल पहाड़ की नोक पर चलना कठिन है!

यह जगह नीलकंठ पर्वत के पीछे है यानी ठीक श्री केदारनाथ के पीछे का भाग है सहस्त्रधारा से 3 किलोमीटर चलने के बाद आता है चक्रतीर्थ बहुत बड़ा मैदान गोलाकार का सुखी मैदान की तरह दिखाई देता है इतनी ऊंचाई में हिमालय पर इतना बड़ा मैदान देखकर आश्चर्य होता है पांच पांडव जब स्वर्गारोहिणी की ओर जा रहे थे तो वीर अर्जुन चक्रतीर्थ तक ही आ सके थे और यहीं पर उन्होंने शरीर का त्याग दिया था

इससे आगे भीम युधिष्ठिर और स्वान के रूप में धर्मराज गए थे चक्रतीर्थ में कुछ गुफाएं हैं अतः यात्री अपनी यात्रा का दूसरा रात्रि विश्राम इन्हीं गुफाओं में करते हैं कुछ यात्री आगे भी चले जाते हैं और दूसरे दिन आगे की यात्रा शुरू करते हैं चारों ओर बर्फीली चोटियां है यहां पर बादल भी नीचे रह जाते हैं यात्री बादलों के ऊपर पहुंच जाते हैं चक्रतीर्थ से यह चढ़ाई काफी कठिन है ऑक्सीजन की भी कमी हो जाती है यह ऊंचाई लगभग 14000 फुट की ऊंचाई पर है इस चोटी से सामने सतोपंथ टॉप दिखाई देता है और कुछ हिस्सा स्वर्गारोहिणी का इस चोटी के बाद रास्ता और कठिन हो जाता है!

यह तीर्थ है ही ऐसा जिसके दर्शन से प्राणी की आंखों से भक्ति रस की गंगा बहने लगती है चक्रतीर्थ से सतोपंथ तक 3 किलोमीटर का रास्ता यात्री की कठिन परीक्षा ले लेता है यह रास्ता साधारण नहीं है बल्कि यात्रियों को ग्लेशियर के ऊपर चलना पड़ता है नीचे पानी बहता है यहां रास्ता नहीं बल्कि यात्री को एक स्थान पर खड़े होकर कामने रास्ते का चिन्ह देखना पड़ता है यह चिन्ह एक पत्थर के ऊपर दूसरा पत्थर रखकर बनाया जाता है इस प्रकार यात्री इन चिन्हों को देखकर रास्ते का अनुमान लगाकर आगे चलते हैं

एक चोटी पर पहुंच कर सामने अलकापुरी का टॉप दिखाई पड़ता है यह कुबेर का मुकुट है यही वह जगह है जहां से रावण अपने भाई कुबेर से पुष्पक विमान जीतकर लेकर गया था यहीं पर कुबेर के भंडार हैं यहीं से तिरुपति बालाजी ने पद्मावती से शादी करने के लिए कुबेर से कर्जा लिया था 3 किलोमीटर की यात्रा करने के पश्चात सामने ही त्रिकोण रूप में बहुत ही सुंदर एक तालाब दिखाई देता है

जब यात्री सतोपंथ के दर्शन करता है तो ऐसा लगता है जैसे कंकाल को खजाना मिल गया हो जस्सी तपस्वी के सामने मूर्ति मई सिद्धि स्वयं आकर खड़ी हो गई हो इतना स्वच्छ कांच के सामान हरे रंग का जल यात्री का ह्रदय सतोपंथ के दर्शन करके भक्ति ओतप्रोत हो जाता है यह स्थान दुनिया में एक ऐसा स्थान है कि प्राणी यहां पर आने के बाद संसार में जाने की इच्छा नहीं रखता इस सरोवर का जल इतना पवित्र है

कि यदि इसमें कोई गलती से तिनका भी डाल दें तो वहां पर मौजूद पक्षी उस तिनके को उठाकर बाहर फेंक देते हैं यहां के पक्षी भी सात्विक भाव के ही मिलेंगे यह पक्षी और कहीं नहीं मिलते स्कंद पुराण में लिखा है एकादशी के दिन यहां साक्षात ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों देव सतोपंथ सरोवर में स्नान आदि करके तपस्या करने आते हैं सतोपंथ के दर्शन पूजा स्तुति करने से क्या फल प्राप्त होता है

यह स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं कह सकते तो फिर हम क्या कहें यात्री सिर्फ यही तक ही जाते हैं और पांचों पांडवों में से भीम सतोपंथ तक ही जा सके और यही सतोपंथ में अपना शरीर त्याग दिया यात्री भी सतोपंथ में स्नान करके तपस्या करते हैं कोई कोई तो अपनी ठाकुर जी को स्नान कराकर पूजा अर्चना करते हैं सतोपंथ में एक मोनी महाराज रहते हैं जो सतोपंथ में 12 महीने रह कर साधना करते हैं

यह किसी से बात नहीं करते बस मौन रहते हैं किसी से कुछ लेना देना भी पसंद नहीं करते यहां पर रहने वाले साधु संत कभी कच्चा आलू खाकर और कभी आटे को पानी में मिलाकर खा लेते हैं यह जड़ी बूटी का इस्तेमाल भी करते हैं जिससे भूख नहीं लगती बस यह लोग प्रभु चरणों में लीन रहते हैं यह भी एक नशा है

ऊंचे हिमालय में जहां भगवान के सिवा और कोई नहीं रहता आगे फिर ग्लेशियर के ऊपर से जाना है यहां पर विस्फोट जैसी आवाज भी आती हैं यह आवाजें ग्लेशियर के टूटने की होती हैं दूर चोटी के बाद पहले चंद्रकुंड आता है यहां पर चंद्रमा है 88000 वर्ष तक अष्टक्षरी मंत्र से जाप करके श्री नारायण से नक्षत्रों का राजा होने का वर मांगा था इस कुंड काजल चंद्रमा की तरह ही घटता बढ़ता रहता है

पूर्णमासी के दिन यह चंद्रकुंड पूर्ण जल से भरा होता है और अमावस्या पर चंद्र कुंड पूरा खाली रहता है चंद्र कुंड के बाद सूर्य कुंड आता है यहां पर यात्री पूजा अर्चना करते हैं जो भी प्राणी यहां पर पूजा करते हैं और सूर्य नारायण का जाप करते हैं प्राणी सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है सूर्य कुंड के बाद पहाड़ की नोक पर चलना पड़ता है दोनों तरफ खाई होती है यहां पर संभल कर चलना पड़ता है!

किसी धार के बाद यात्री पहुंचते हैं स्वर्गारोहिणी के नीचे ग्लेशियर तक यहां पहुंचकर प्राणी धन्य हो जाता है इसी के ऊपर स्वर्गारोहिणी है यहीं पर तीन सीढ़ियां दिखाई देती है कहते हैं कुल 7 सीढ़ियां हैं परंतु बादलों के कारण तीन सीढ़ियां ही दिखाई देती है यही वह स्थान है

जहां पर धर्मराज युधिष्ठिर और स्वान के रूप में स्वयं धर्मराज गए थे जब युधिष्ठिर को लेने के लिए विमान आया तो देवताओं ने युधिष्ठिर को आदर सहित विमान में बैठने को कहा तो युधिष्ठिर बोले रास्ते में मेरे भाई एक-एक करके मेरा साथ छोड़ ते गए परंतु यही एक स्वान है

जिसने मेरा साथ यहां तक दिया इसका मतलब मेरे ज्यादा पुण्य इस स्वान ने की है इसलिए यदि यह स्वान स्वर्ग जाएगा तो मैं भी जाऊंगा अन्यथा मैं नहीं जाऊंगा यह सुनकर धर्मराज ने स्वान का रूप छोड़कर युधिष्ठिर को दर्शन दिए और कहा वाकई मैं तुम धर्मराज हो भक्तजनों यही वह स्थान है जहां से प्राणी शरीर सहित स्वर्ग जा सकता है|

स्वर्गारोहिनी की यात्रा यहीं पर समाप्त होती है

आशा करते हैं आपको यह लेख बहुत पसंद आया होगा जय श्री नारायण


हर हर महादेव 🙏

जय हिन्दूराष्ट्र  जय बद्रीविशाल

हर हर महादेव

रविवार, 13 सितंबर 2020

हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।


 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है ।

हिंदी ! तू फिर भी हिंदी है।
अनन्त क्षितिज के नवविहान में , सौंदर्यगर्वित असंख्य तरंगी है ;
हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

तेरी आदर्श के साथ हो रहा, व्यवहार क्रूर बेढंगी है ;
हिन्दी तू फिर भी हिन्दी है।

 नील-निलय के नक्षत्रलोक में,
 गोमुख से गंगासागर;

 नभोमण्डल में धारणीतल में ,
 चीर स्मृतियां अन्तर-निरन्तर ! 
नवल तरुपत्ते कुसुम-किसलय  ,
 असीम आत्म आनन्दी है ;

 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

 मानस सागर के तट पर ,
 नवजलद के बूंद मनोहर ,
 श्रुति सींचित धारा से अभिषेक,
 मधुबन के हिय सरस संदेश !
 भव्य संस्कृति के मूल रहस्य , अभिसिंचित करती कालिंदी है ;

हिन्दी तू फिर भी हिन्दी है।

  दिशाओं के सर्वत्र मधुर गान, 
दिवस का समुज्ज्वल उत्थान,
 नाना वाद्यों की मधुर स्वर , 
प्राणसंपोषिका सर्वत्र प्रखर !

उभयश्रुति के स्वर्ण कुंडलों की दृष्टि,  नित्य दीर्घ उत्कंठी है ।
हिन्दी तू फिर भी हिन्दी है।

 विधाता की कल्याणी सृष्टि,
 सजल संसृति भूतल पर,
 श्रृंगार सकल विस्तृत भूखंड के,
सरस समर्पण कलित् विभा पर !

  मृदुल उन्मुक्त सौरभ संयुक्त,
 सत्पुष्पों की मलय सुगंधी है ;
 हिंदी! तू फिर भी हिन्दी है।

 सुंदरियों के श्रुतिआनन की,
 प्रेम रसिक मन भवन की,
 वीरों के शौर्य सघन छोर ,
रे तपी ! ध्यान में घोर कठोर !

 महार्णव पर्वत के स्तम्भ सार ,
 मही-व्योम अरण्य का आधार ।
 दूर्दिन के नाशक संताप, 
अनन्त पुण्यों के प्रबल प्रताप ।
 स्थिति विश्रांति प्रलय समाहित ब्रह्मांड केंद्र तरंगी है ;
 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

 मृदुल स्वर की लोल-लहरियां ,
 संतापों को धोती ,
धीरे-धीरे प्रिय विरहाकुल ,
 निज निकुंज में रोती !

 अभिशप्त संतप्त आर्त्त स्वरों से , विभाजित संत्रासी सी सिंधी है ;

 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

 क्षीणकंठ है विकल तन,
 व्यथित प्राण विशुद्ध मन,
 उत्पीड़न की निरंकुश धार नग्न ;
  हाय ! लुप्त संस्कृति होती भग्न ।

 हास्य में प्रतिपल भ्रांति अशांति,
  हुआ जा रहा  आघात नंगी है ;

 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

मानस पटल पर गुंजरित है,
 आक्रांत लहर की घातें ;
 वीरता की प्रतिबिंब दिखाती,
 शाश्वत विस्मृत सी बातें !

 वीरों के शाश्वत शौर्य प्रतीक ,
 वीरांगनाओं की माथे की बिंदी है ;

हिन्दी! तू  फिर भी हिन्दी है।

तेरी आदर्श के साथ हो रहा, व्यवहार क्रूर बेढंगी है ;
हिन्दी तू फिर भी हिन्दी है।
हिन्दी! तू  फिर भी हिन्दी है।

✍🏻 आलोक पाण्डेय

अश्विन कृष्ण पितृपक्ष  इंदिरा एकादशी । संवत् -२०७७ ।

वाराणसी भारतभूमि।

रविवार, 30 अगस्त 2020

मंगलमय यह देश कहां मिलने वाला !

 


मंगलमय यह देश कहां मिलने वाला !
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शुचि , दान ,धर्म-सत्कर्म सार का , श्रेय लिए जीवन स्तम्भ ;
क्षमा, दया, धृति ,त्याग ज्ञेय , निष्कंटक ! नहीं कुटिल दंभ !

विद्वता , बल-विक्रम का सिन्धु अपार, सर्वत्र सार ज्ञेय है –
दीपित विधेय जग-जीवन प्रवाह में , रहा अजेय-दुर्जेय है।

पुण्य रश्मियां , शुभ्र संस्कृति, वैदिक स्वर सींचित विहान ;
धवल-धार, मूर्तिमनोरम , हे जन्मभूमि, श्रद्धावनत् प्रणाम !

सुधन्य प्रवीर , हे धर्मप्राण ! हे तपोभूमि के पुण्यधाम ;
सप्तसिन्धु सभ्यता के, उदात्त दर्शन , तूझे प्रणाम !

आज पग-पग पर खण्डित धर्म-धार , सर्वत्र दाह के दु:सह स्वर ;
बड़ी विकट है कालखण्ड , खण्डित भूमण्डल प्रहर-प्रहर !

नदी नाले सिसक रहे , पर्वत-मिट्टी-रेत- पठार ;
सिसक रहे हैं आत्मभाव , न्याय, अहिंस्र, सत्य धार !

भू से खण्डित शैल-शिखर से , सरिता से सागर से ;
घीरे जड़ताओं से , आक्रांताओं से , आच्छादित आहत स्वर से ।

खण्डित सत्कर्म सधर्म प्रखर , शील स्नेह अंतरण से ;
संस्कृति टूट रही द्वीपांतर से , खण्डित नभश्चरण से !

हे धन्य वीर ! यह प्रबल प्रताप, अग्निस्फुलिंग जिला दे ;
मंगलमय यह पुण्य प्रकल्प, भारत को भव्य बना दे ।
अग्नि की लपटें कराल हों , दुर्धर्ष नृत्य रचा दे ;
आक्रांताओं को कर स्तम्भित , धवल-धार रचा दे ।

भू के मानचित्र पर अंकित , सब तिमिर रोष हटाकर ;
विस्तृत विशाल नेत्रों को – भू-नभ तक फैलाकर ।

शत्रु दल में हा-हाकार मचे , पुरा घोष शांति का उठे स्वर ;
धर्म दीप हों सुदीप्त प्रखर , सुदीप्त सनातन भारत भास्वर ।

मंगलमय यह देश धीर ! पुनः कहां मिलने वाला ;
शुभ्र संस्कृतियों पर क्रूर आक्षेप को , कौन यहां सहनेवाला ?

यही सोचकर वीर बलिदानी ! बार-बार मरना होगा ;
स्वाभिमानी स्तम्भों पर , आघात् नहीं सहना होगा ।

✍🏻 आलोक पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’

काशी ! तू अविरल अविनाशी है ।

 काशी ! तू अविरल अविनाशी है।

   

काशी ! तू अविरल अविनाशी है !

शिव शंकर प्रलयंकर के अविमुक्त युक्त विन्यासी है ।

काशी , तू अविरल अविनाशी है !


सूर्योदय की प्रथम प्रभा,
पूर्वाभिमुख सौंदर्यप्राण ;
गंगा की पुष्पोज्जवल धारा,
जन-जन की हरती, कलुषित त्राण !

सप्तपुरी में तीर्थ पावनी,
अतिप्राचीन भव्य सुहावनी !
जहां सभ्यता पायी जय ,
तप-त्याग-पुण्य शीर्ष संचय !

  घाटों की शुचिता सार यहां ,
समरांगण हुंकार यहां ।
सान्ध्य वंदन त्रिकाल प्रहर ,
सर्वत्र प्रवाहित वैदिक स्वर 
विज्ञान यहां करता वंदन ;
लिए , सिर मुकुट माथे चंदन ।

 प्राच्य संस्कृति विख्यात रही ,
स्वधर्म कर्म निष्ण्णात् रही ।
सिद्ध गंधर्वों से सेवित ,
त्रिपथगा से प्रेरित !

भव्य प्रट्टालिकायें विशेष ,
देती उच्चता का संदेश ।
यहां
योग-दर्शन विज्ञान अलौकिक, 
ज्ञानी-विज्ञानी-बटुक-संन्यासी है ,

काशी, तू अविरल अविनाशी है।


ऋग्-यजु-साम-अथर्व गान यहां,
अद्भुत पावन अधिष्ठान यहां ।
कण-कण में शिव विद्यमान ,
विश्वेश्वर की नगरी महान ।

पंचगंगा की अविरल धारा ,
दशाश्वमेध की धवल किनारा ।
वही विलक्षण असि घाट ,
खोज रहा तुलसी के बाट।

सिद्ध तपरत दिग्-दिगंत ,
जीवन्त प्राण , प्राची के मंत्र ।
जीवन यात्रा भष्मीभूत ,
मणिकर्णिका के भभूत ।

क्रूर काल सदा से महाश्मशान में , विभित कम्पित संत्रासी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है।


सप्तार्णव के सार यहां ,
सप्तसिन्धु के धार यहां ।
भव्य वास्तुकला विज्ञान यहां ,
विविध शैली संधान यहां ।
कला के प्राच्य स्वरुप यहां ,
भारत के विविध प्रारुप यहां  ।
ज्ञान विज्ञान के दिव्य-धार ,
लाभान्वित सारा संसार !

उत्तरवाहिनी गंगा धारा ,
समेटी है भारत सारा ।
आस्था के पाले में झूली ,
भष्मीभूत संपुरित धूली ।

अन्नपूर्णा के आधार यहां ,
 विश्व पालक प्राणाधार यहां ।
आचार्य शंकर के संदेश,
अखण्ड निरत भारत देश !

गंग-उर्मियों की अकम्पित, धवल तरंगें , शाश्वत मुक्ति के वासी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है।



काशी ! तू अविरल अविनाशी है।

विक्रमण से दग्ध हुई , वरुणा- असि की धार यहां;
रुग्ण हुई सरिता धारा, चीर संस्कृतियों के सार यहां,
सभ्यता कराह उठी है, आर्त्त भाव भर विकल बांह ;
रुद्रवास अविमुक्त धरा पर , यह विषाक्त भवितव्य ! आह ।
मन्दिर विग्रह सब टूट रहे ,
सहस्त्रभाग्य सनातन फूट रहे ।
अतिक्रमित हैं वैदिक स्वर -
अनन्त काल से ध्वनित प्रखर ।

इनसे ही स्वार्थ- परमार्थ है -
भारत ही इनसे भारत है ।

अब कम्पित है कण्ठ-गीत ,
जीवन के शाश्वत संगीत ।

घाटों पर गुलछर्रे दिन-रात ,
संस्कृतियों पर प्रतिपल संघात्।
पाणिनी के अष्टाध्यायी सूत्र ,
सब बिखेर रहे हैं - मल-मूत्र !

वेद मंत्रों के भान कहां ,
कर्कश ध्वनित अजान यहां !
 कलुषित कलंक कहां सुहाती -
यह देख सदा फटती छाती !

तेरी शुचिता के साथ हुआ नर का व्यवहार विनाशी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है ।


✍🏻   पण्डित आलोक पाण्डेय ‘ विश्वबन्धु ’
                 वाराणसी , भारतभूमि ।
         भाद्रपद शुक्ल वामन द्वादशी , वि. सं. २०७७

रविवार, 29 मार्च 2020

मानव निर्मित वायरस और विश्व

सहस्त्राब्दियों से संवहित महान विराट यह सभ्यता अतीत के ध्वंसावशेषों एवं विघटन के क्रूर संतापों को तटस्थता के साथ देख रही है। यद्यपि प्रकृति में कोई भी विस्फोटक स्थिति परिलक्षित नहीं हो रही है , प्रत्येक संध्या सूर्य अपनी अमिट ताम्र लालिमा फैलाये उदय और अस्त हो रहा है। प्रकृति जीवों के विविध संतापों एवं अपने असंख्य परिकरों के क्षय का मूल्य चुका लेना चाहती है। विघटन एवं पलायन की विभीषिका से आहत संस्कृतियों के कारुणिक भावों का पूरा गणित कर लेना चाहती है। संसारिक रंगमंचों पर भिन्न-भिन्न कलाओं में रंग बदलने में माहिर मानव आज सुसुप्त एवं सहमा सा क्यों है ?
है...कोई उत्तर........!
वस्तुत: विश्व के कोने कोने में जीवों की आहें, करुण पुकार, असह्य वेदना भरी चीत्कार एवं पृथ्वी के मर्मांतक अन्त:स्थल में उन्मादियों द्वारा प्रतिक्षण की जाने वाली भयंकर चोटों में सन्निहित है। सन्निहित है प्रकृति के साथ क्रूरता भरी भयानक लूट के हर उस कुकर्म में ...!
आज अचानक क्या हो गया ...
विश्व धरातल पर सम्पूर्ण विश्व को कितने बार  विध्वंसित कर देने की क्षमता रखने वाले तथाकथित महाशक्तिशाली देश दुबके हुए से क्यों हैं ! आखिर औकात में कैसे आ गये !
उस काल को नमस्कार है !
यद्यपि आक्रांताओं द्वारा आच्छादित, सम्पूर्ण विश्व को आहत कर देने वाली यह #चायनीज_वायरस मानव निर्मित एक प्रयोग है। प्रकृति के विरुद्ध होने का परिणाम क्या होता है , समस्त विश्व के सामने परिलक्षित है। सम्पूर्ण विश्व LOCKDOWN की स्थिति में है। प्रकृति को हम संजोए होते तो आज हम इस प्रकार असहाय हो घरों में बन्द नहीं होते ,,, प्रकृति समस्त विष कणिकाओं को अब तक त्वरित शमन कर गयी होती ! आर्थिक महाशक्ति बनने की होड़ में न जाने कितने देशों की अर्थव्यवस्थाएं दम तोड़ देंगी। लोग अनायास भूखों मरने लगेंगे , जितना की यह #CHINESE_VIRUS  नहीं मार पायेगा।
चीन में कम्यूनिस्टों का शासन यह चाहता था कि विश्व में तानाशाह के रूप में ख्यापित होने का एकमात्र विकल्प छद्म जैविक युद्ध (BIOLOGICAL WAR) ही है।
परिणामत: इस दुष्ट कुकर्मी कुटिल देश नें अपने लैब में वर्षों से कई कृत्रिम जैविक वायरसों का विनिर्माण, प्रयोग एवं परीक्षण का सूत्रपात करता रहा ।
इसका एक ही कुटिलाकांक्षा था कि समस्त विश्व किसी तरह मेरे अधीन रहे , तानाशाह के रूप में हम ख्यापित हो सकें।
इसका एक ही लक्ष्य है , असंख्य समृद्ध मानवों की तड़पती निरीह लाशों पर महाशक्ति बनना ! विश्व की अर्थव्यवस्था को खोखला कर अपने नियंत्रण में लेना ।
आज इसके कुकर्मों के कारण ही सम्पूर्ण मानवता एवं विश्व की अर्थव्यवस्था LOCKDOWN की स्थिति में है।
स्पेन को 3500 करोड़ डॉलर का चिकित्सकीय उत्पाद देना यह एक ज्वलंत उदाहरण है। आगे भी यही प्रयोग और भयानक रूप में होने वाला है।

पर भारत !

चीर संस्कृतियों की विशालता का दृढ़ स्तम्भ !
वर्षों से संवहित महान सभ्यता का जीवंत स्वरुप !
प्रत्येक बयारों को सह लेगा । इसकी विलक्षण संस्कृतियां विषमय अणु-परमाणु के असंख्य अदृश्य कणों एवं अदृश्य वायरसों को दग्ध कर मटियामेट करने की अद्भुत क्षमता रखती है। इसके कण कण में शंकर हैं। कोई भी संक्रमित #Second_Particle
के आक्रमण का कोई औकात ही नहीं है।
पर रुकिये ...!
अपने धरातल को झांकिए । क्या आप अध्यात्मिक, भौतिक, दार्शनिक एवं व्यवहारिक धरातल पर प्रकृति को विशुद्ध संतुलित दृढ़ एवं सशक्त रख पाए हैं ।
आपने पश्चिम की चकाचौंध में अपने प्राकृतिक संसाधनों को बड़ी निर्ममता के साथ दोहन करके खोखला कर दिया है ।
पृथ्वी...पानी... प्रकाश...
पवन... आकाश...!
क्या सुरक्षित रखा है आपने ?
नहीं...न...!
मैं आपको निराशा के निकृष्ट गर्त में नहीं धकेलना चाहता !
डंके की चोट पर सचेत अवश्य करना चाहता हूं ,
अपने धरातल को पखारिए ...
विशुद्धता को प्रकटित कर प्राणीमात्र को अभय दीजिए।
भक्ष्य-अभक्ष्य पर विचार करें।
जरा सोचिए !
क्या आपकी इतनी क्षमता नहीं रही की एक मानव निर्मित विषाणु से टकरा सके !
कहां गए वो ज्ञान-विज्ञान के संधान !
उत्तिष्ठ भारत !
प्रकृति की ओर लौटो ,
पुरातन काल का आह्वान करो !
आपको LOCKDOWN नहीं होना पड़ेगा।
ब्रह्माण्ड  का कोई भी वायरस आपको स्पर्श तक नहीं कर पायेगा । विश्वास न हो तो अपने ज्ञान को पुष्ट कीजिए , प्राचीनता का अवलोकन कीजिए ।
एक कृत्रिम जैविक वायरस का आक्रमण और समस्त विश्व आक्रांत !
सोचिए !
प्रकृति यदि असंतुलित और विक्षोभ की स्थिति में हो जाए , तो क्या होगा ?
प्रलय के गर्भ में भयानक विस्फोट !
बहुत कम समय है समस्त विश्व के पास ।

✍🏻  आलोक पाण्डेय

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी

उत्ताल तरंगाघात प्रलयघन गर्जन जलधि क्षण भर,
धीर-वीर सौंदर्य गर्वित, खड़ा अविचल हिमगिरि , धीर-धर ,
शान्त सरोवर विशुद्ध धवल सिमटी हैं वर्तुल मृदुल लहर ,
क्षिति-जल-अनिल-अनल में , नभ में, अविरल सस्नेह गूंज रही स्वर ।
जगतितल में, व्योममण्डल में,
शुचि शाश्वत भूति विस्तारिणी ,
वंदन ! भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी ।


                                   ✍🏻 आलोक पाण्डेय

बन्धुवर अब तो आ जा गांव !