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साहित्य जगत


काशी ! तू अविरल अविनाशी है ।काशी ! तू अविरल अविनाशी है।
   

काशी ! तू अविरल अविनाशी है !

शिव शंकर प्रलयंकर के अविमुक्त युक्त विन्यासी है ।

काशी , तू अविरल अविनाशी है !


सूर्योदय की प्रथम प्रभा,
पूर्वाभिमुख सौंदर्यप्राण ;
गंगा की पुष्पोज्जवल धारा,
जन-जन की हरती, कलुषित त्राण !

सप्तपुरी में तीर्थ पावनी,
अतिप्राचीन भव्य सुहावनी !
जहां सभ्यता पायी जय ,
तप-त्याग-पुण्य शीर्ष संचय !

  घाटों की शुचिता सार यहां ,
समरांगण हुंकार यहां ।
सान्ध्य वंदन त्रिकाल प्रहर ,
सर्वत्र प्रवाहित वैदिक स्वर 
विज्ञान यहां करता वंदन ;
लिए , सिर मुकुट माथे चंदन ।

 प्राच्य संस्कृति विख्यात रही ,
स्वधर्म कर्म निष्ण्णात् रही ।
सिद्ध गंधर्वों से सेवित ,
त्रिपथगा से प्रेरित !

भव्य प्रट्टालिकायें विशेष ,
देती उच्चता का संदेश ।
यहां
योग-दर्शन विज्ञान अलौकिक, 
ज्ञानी-विज्ञानी-बटुक-संन्यासी है ,

काशी, तू अविरल अविनाशी है।


ऋग्-यजु-साम-अथर्व गान यहां,
अद्भुत पावन अधिष्ठान यहां ।
कण-कण में शिव विद्यमान ,
विश्वेश्वर की नगरी महान ।

पंचगंगा की अविरल धारा ,
दशाश्वमेध की धवल किनारा ।
वही विलक्षण असि घाट ,
खोज रहा तुलसी के बाट।

सिद्ध तपरत दिग्-दिगंत ,
जीवन्त प्राण , प्राची के मंत्र ।
जीवन यात्रा भष्मीभूत ,
मणिकर्णिका के भभूत ।

क्रूर काल सदा से महाश्मशान में , विभित कम्पित संत्रासी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है।


सप्तार्णव के सार यहां ,
सप्तसिन्धु के धार यहां ।
भव्य वास्तुकला विज्ञान यहां ,
विविध शैली संधान यहां ।
कला के प्राच्य स्वरुप यहां ,
भारत के विविध प्रारुप यहां  ।
ज्ञान विज्ञान के दिव्य-धार ,
लाभान्वित सारा संसार !

उत्तरवाहिनी गंगा धारा ,
समेटी है भारत सारा ।
आस्था के पाले में झूली ,
भष्मीभूत संपुरित धूली ।

अन्नपूर्णा के आधार यहां ,
 विश्व पालक प्राणाधार यहां ।
आचार्य शंकर के संदेश,
अखण्ड निरत भारत देश !

गंग-उर्मियों की अकम्पित, धवल तरंगें , शाश्वत मुक्ति के वासी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है।



काशी ! तू अविरल अविनाशी है।

विक्रमण से दग्ध हुई , वरुणा- असि की धार यहां;
रुग्ण हुई सरिता धारा, चीर संस्कृतियों के सार यहां,
सभ्यता कराह उठी है, आर्त्त भाव भर विकल बांह ;
रुद्रवास अविमुक्त धरा पर , यह विषाक्त भवितव्य ! आह ।
मन्दिर विग्रह सब टूट रहे ,
सहस्त्रभाग्य सनातन फूट रहे ।
अतिक्रमित हैं वैदिक स्वर -
अनन्त काल से ध्वनित प्रखर ।

इनसे ही स्वार्थ- परमार्थ है -
भारत ही इनसे भारत है ।

अब कम्पित है कण्ठ-गीत ,
जीवन के शाश्वत संगीत ।

घाटों पर गुलछर्रे दिन-रात ,
संस्कृतियों पर प्रतिपल संघात्।
पाणिनी के अष्टाध्यायी सूत्र ,
सब बिखेर रहे हैं - मल-मूत्र !

वेद मंत्रों के भान कहां ,
कर्कश ध्वनित अजान यहां !
 कलुषित कलंक कहां सुहाती -
यह देख सदा फटती छाती !

तेरी शुचिता के साथ हुआ नर का व्यवहार विनाशी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है ।


✍🏻   पण्डित आलोक पाण्डेय ‘ विश्वबन्धु ’
                 वाराणसी , भारतभूमि ।
         भाद्रपद शुक्ल वामन द्वादशी , वि. सं. २०७७

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