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रविवार, 13 सितंबर 2020

हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।


 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है ।

हिंदी ! तू फिर भी हिंदी है।
अनन्त क्षितिज के नवविहान में , सौंदर्यगर्वित असंख्य तरंगी है ;
हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

तेरी आदर्श के साथ हो रहा, व्यवहार क्रूर बेढंगी है ;
हिन्दी तू फिर भी हिन्दी है।

 नील-निलय के नक्षत्रलोक में,
 गोमुख से गंगासागर;

 नभोमण्डल में धारणीतल में ,
 चीर स्मृतियां अन्तर-निरन्तर ! 
नवल तरुपत्ते कुसुम-किसलय  ,
 असीम आत्म आनन्दी है ;

 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

 मानस सागर के तट पर ,
 नवजलद के बूंद मनोहर ,
 श्रुति सींचित धारा से अभिषेक,
 मधुबन के हिय सरस संदेश !
 भव्य संस्कृति के मूल रहस्य , अभिसिंचित करती कालिंदी है ;

हिन्दी तू फिर भी हिन्दी है।

  दिशाओं के सर्वत्र मधुर गान, 
दिवस का समुज्ज्वल उत्थान,
 नाना वाद्यों की मधुर स्वर , 
प्राणसंपोषिका सर्वत्र प्रखर !

उभयश्रुति के स्वर्ण कुंडलों की दृष्टि,  नित्य दीर्घ उत्कंठी है ।
हिन्दी तू फिर भी हिन्दी है।

 विधाता की कल्याणी सृष्टि,
 सजल संसृति भूतल पर,
 श्रृंगार सकल विस्तृत भूखंड के,
सरस समर्पण कलित् विभा पर !

  मृदुल उन्मुक्त सौरभ संयुक्त,
 सत्पुष्पों की मलय सुगंधी है ;
 हिंदी! तू फिर भी हिन्दी है।

 सुंदरियों के श्रुतिआनन की,
 प्रेम रसिक मन भवन की,
 वीरों के शौर्य सघन छोर ,
रे तपी ! ध्यान में घोर कठोर !

 महार्णव पर्वत के स्तम्भ सार ,
 मही-व्योम अरण्य का आधार ।
 दूर्दिन के नाशक संताप, 
अनन्त पुण्यों के प्रबल प्रताप ।
 स्थिति विश्रांति प्रलय समाहित ब्रह्मांड केंद्र तरंगी है ;
 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

 मृदुल स्वर की लोल-लहरियां ,
 संतापों को धोती ,
धीरे-धीरे प्रिय विरहाकुल ,
 निज निकुंज में रोती !

 अभिशप्त संतप्त आर्त्त स्वरों से , विभाजित संत्रासी सी सिंधी है ;

 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

 क्षीणकंठ है विकल तन,
 व्यथित प्राण विशुद्ध मन,
 उत्पीड़न की निरंकुश धार नग्न ;
  हाय ! लुप्त संस्कृति होती भग्न ।

 हास्य में प्रतिपल भ्रांति अशांति,
  हुआ जा रहा  आघात नंगी है ;

 हिन्दी ! तू फिर भी हिन्दी है।

मानस पटल पर गुंजरित है,
 आक्रांत लहर की घातें ;
 वीरता की प्रतिबिंब दिखाती,
 शाश्वत विस्मृत सी बातें !

 वीरों के शाश्वत शौर्य प्रतीक ,
 वीरांगनाओं की माथे की बिंदी है ;

हिन्दी! तू  फिर भी हिन्दी है।

तेरी आदर्श के साथ हो रहा, व्यवहार क्रूर बेढंगी है ;
हिन्दी तू फिर भी हिन्दी है।
हिन्दी! तू  फिर भी हिन्दी है।

✍🏻 आलोक पाण्डेय

अश्विन कृष्ण पितृपक्ष  इंदिरा एकादशी । संवत् -२०७७ ।

वाराणसी भारतभूमि।