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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी

उत्ताल तरंगाघात प्रलयघन गर्जन जलधि क्षण भर,
धीर-वीर सौंदर्य गर्वित, खड़ा अविचल हिमगिरि , धीर-धर ,
शान्त सरोवर विशुद्ध धवल सिमटी हैं वर्तुल मृदुल लहर ,
क्षिति-जल-अनिल-अनल में , नभ में, अविरल सस्नेह गूंज रही स्वर ।
जगतितल में, व्योममण्डल में,
शुचि शाश्वत भूति विस्तारिणी ,
वंदन ! भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी ।


                                   ✍🏻 आलोक पाण्डेय

बन्धुवर अब तो आ जा गांव !


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

बन्धुवर अब तो आ जा गांव !

 बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
बंधुवर अब तो आ जा गांव ! 

खोद रहे नित रेत माफिया नदिया की सब रेती 
 चर डाले हरियाली सारी धरती की सब खेती ।
आम-पीपल-नीम-बरगद काट ले गए, लग रहे बबूल पर दांव 
बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
समरसता अब खो चुकी धर्म खतरे में घट रहा
 स्वदेशी घुट रही घर में समाज देश भी बंट रहा ।
भाई भाई को लूटे , सर्वत्र विघटन के पांव
 बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
 होली और दशहरा में लोग हिल-मिल सब डोले 
सारे झगड़े वैर भुला, प्रिय मधुर सरसमय बोले।
 दुर्लभ वह चौपाल हो गई और वह दुर्लभतम् भाव 
बन्धुवर अब तो आ जा गांव ! 
रामायण की कथा खो गई , खो गई बूढ़ी मां की अमर कहानी ,
खो गये वीर शिवा पेशवा महाराणा, वीरांगना झांसी की रानी ।
दुर्लभ वह संस्कार हो गए ,मिट रहे नित सभ्यता के नांव;
 बन्धुवर अब तो आ जा गांव !र
बिलख धरती सारी सिसक रही जननी प्यारी
 सिमट रही दुख की भारी ,तडप रही पग पग हारी ।
खग-विहग , जलचर दुखिया आहत सब प्राणी , कहां एक भाव से ठांव ;
 बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
 सुख रहे नदी सरोवर लूट रहे वन उपवन
 लूट रहा पर्वत धरा-व्योम ,लूट रहा हर क्षण जीवन ।
स्वार्थ में परमारथ लूटे मिल रहे नित नए घाव ।
बंधुवर अब तो आ जा गांव !
हा-हा कार मचा निशिदिन क्रूरता का प्रतिरूप खड़ा,
 दगाबाज चहुं ओर लुटेरे हिंसा-पशुता का रूप अड़ा।
नित द्रौपदी पर लगते कौरव पांडव के दांव ;
बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
 वन उपवन अब कहां हंसते वृक्ष लता गुल्म  नहीं खिलते, 
सहस्त्रों गाय कटने पर भी वह  शौर्य हुंकार नहीं दिखते ।
 कंपित कत्ल की धार खड़ी अवध्या , हाय! लेकर दैन्य भाव ;
बंधुवर अब तो आ जा गांव !
आकाश चांदनी विलसे , मलयाचल चोटी शिर से 
कर रही विलाप वसुधा आक्रांत , करुण पुकार आहत स्वर से ।
जलते छप्पर-छाजन आज , नहीं शांति सुस्थिरता की छांव !
बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
वर्षों से शीतल सुरभित समीर व्यथित , 
मुरझा रहे सुमन खिले बहु रीत ।
हर सांझ सबेरे अनाचार , डूब रही सत्य की नाव ,
बन्धुवर अब तो आ जा गांव !

✍🏻 आलोक पाण्डेय
               (वाराणसी,भारतभूमि)


गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

करना होगा पथ प्रशस्त !

जीवन के सनातन मूल्यों की हो रही दूर्दशा को रोकने का अवबोधन कराती एक  दूरद्रष्टा व्यक्तित्व की कविता -


करना होगा पथ प्रशस्त !


फटे मही-व्योम अंगार मिले ,

कंपित सागर व्यथित तूफान भले ,

सर्वत्र झंझावातों के विषबेल खिले;

शाश्वत जीवन मूल्यों के तार हिले !

हो कंटक राहें चाहे , बेहद क्रूर अशांत व्यस्त ;

दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !

घनघोर अंधेरा हो जाए ,

प्रलय की आंधी फहराए ,

मेघ ज्वाल बरसा जाए ,

दिशाएं आपस में टकराए !

लेकर ऋषियों के दिव्य तेज प्रखर ,

सींचित, युगों से जो व्यक्त-अव्यक्त ;

दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !

विविध षड्यंत्रों को देख-देख,

संस्कृति संकुचित शीघ्र निरेख ,

सभ्यता अकंपित भी भाग्य लेख,

त्वरित खींचने होंगे दृढ़-विभत्स आरेख !

आक्रांताओं के कुटिल नीति से देख ! 

राष्ट्र , आज कैसा विभक्त ;

दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त ! 

दग्ध वन-उपवन सब प्राणी दग्ध दिशाएं ,

दग्ध निर्झर-कूप-तडाग-तटिनी धाराएं ,

दग्ध प्राणवायु ज्योत , विविध स्रोत कलाएं ,

दग्ध सौम्य प्रकृति भव्य छटाएं !

सबकुछ असंतुलित देवभूमि में , 

हाय धरा हो चली संतप्त ;

दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !


✍🏻 आलोक पाण्डेय

              (वाराणसी,भारतभूमि)