जीवन के सनातन मूल्यों की हो रही दूर्दशा को रोकने का अवबोधन कराती एक दूरद्रष्टा व्यक्तित्व की कविता -
करना होगा पथ प्रशस्त !
फटे मही-व्योम अंगार मिले ,
कंपित सागर व्यथित तूफान भले ,
सर्वत्र झंझावातों के विषबेल खिले;
शाश्वत जीवन मूल्यों के तार हिले !
हो कंटक राहें चाहे , बेहद क्रूर अशांत व्यस्त ;
दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !
घनघोर अंधेरा हो जाए ,
प्रलय की आंधी फहराए ,
मेघ ज्वाल बरसा जाए ,
दिशाएं आपस में टकराए !
लेकर ऋषियों के दिव्य तेज प्रखर ,
सींचित, युगों से जो व्यक्त-अव्यक्त ;
दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !
विविध षड्यंत्रों को देख-देख,
संस्कृति संकुचित शीघ्र निरेख ,
सभ्यता अकंपित भी भाग्य लेख,
त्वरित खींचने होंगे दृढ़-विभत्स आरेख !
आक्रांताओं के कुटिल नीति से देख !
राष्ट्र , आज कैसा विभक्त ;
दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !
दग्ध वन-उपवन सब प्राणी दग्ध दिशाएं ,
दग्ध निर्झर-कूप-तडाग-तटिनी धाराएं ,
दग्ध प्राणवायु ज्योत , विविध स्रोत कलाएं ,
दग्ध सौम्य प्रकृति भव्य छटाएं !
सबकुछ असंतुलित देवभूमि में ,
हाय धरा हो चली संतप्त ;
दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !
✍🏻 आलोक पाण्डेय
(वाराणसी,भारतभूमि)
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