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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी

उत्ताल तरंगाघात प्रलयघन गर्जन जलधि क्षण भर,
धीर-वीर सौंदर्य गर्वित, खड़ा अविचल हिमगिरि , धीर-धर ,
शान्त सरोवर विशुद्ध धवल सिमटी हैं वर्तुल मृदुल लहर ,
क्षिति-जल-अनिल-अनल में , नभ में, अविरल सस्नेह गूंज रही स्वर ।
जगतितल में, व्योममण्डल में,
शुचि शाश्वत भूति विस्तारिणी ,
वंदन ! भारतमाता ग्राम्यवन्यविहारिणी ।


                                   ✍🏻 आलोक पाण्डेय

बन्धुवर अब तो आ जा गांव !


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

बन्धुवर अब तो आ जा गांव !

 बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
बंधुवर अब तो आ जा गांव ! 

खोद रहे नित रेत माफिया नदिया की सब रेती 
 चर डाले हरियाली सारी धरती की सब खेती ।
आम-पीपल-नीम-बरगद काट ले गए, लग रहे बबूल पर दांव 
बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
समरसता अब खो चुकी धर्म खतरे में घट रहा
 स्वदेशी घुट रही घर में समाज देश भी बंट रहा ।
भाई भाई को लूटे , सर्वत्र विघटन के पांव
 बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
 होली और दशहरा में लोग हिल-मिल सब डोले 
सारे झगड़े वैर भुला, प्रिय मधुर सरसमय बोले।
 दुर्लभ वह चौपाल हो गई और वह दुर्लभतम् भाव 
बन्धुवर अब तो आ जा गांव ! 
रामायण की कथा खो गई , खो गई बूढ़ी मां की अमर कहानी ,
खो गये वीर शिवा पेशवा महाराणा, वीरांगना झांसी की रानी ।
दुर्लभ वह संस्कार हो गए ,मिट रहे नित सभ्यता के नांव;
 बन्धुवर अब तो आ जा गांव !र
बिलख धरती सारी सिसक रही जननी प्यारी
 सिमट रही दुख की भारी ,तडप रही पग पग हारी ।
खग-विहग , जलचर दुखिया आहत सब प्राणी , कहां एक भाव से ठांव ;
 बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
 सुख रहे नदी सरोवर लूट रहे वन उपवन
 लूट रहा पर्वत धरा-व्योम ,लूट रहा हर क्षण जीवन ।
स्वार्थ में परमारथ लूटे मिल रहे नित नए घाव ।
बंधुवर अब तो आ जा गांव !
हा-हा कार मचा निशिदिन क्रूरता का प्रतिरूप खड़ा,
 दगाबाज चहुं ओर लुटेरे हिंसा-पशुता का रूप अड़ा।
नित द्रौपदी पर लगते कौरव पांडव के दांव ;
बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
 वन उपवन अब कहां हंसते वृक्ष लता गुल्म  नहीं खिलते, 
सहस्त्रों गाय कटने पर भी वह  शौर्य हुंकार नहीं दिखते ।
 कंपित कत्ल की धार खड़ी अवध्या , हाय! लेकर दैन्य भाव ;
बंधुवर अब तो आ जा गांव !
आकाश चांदनी विलसे , मलयाचल चोटी शिर से 
कर रही विलाप वसुधा आक्रांत , करुण पुकार आहत स्वर से ।
जलते छप्पर-छाजन आज , नहीं शांति सुस्थिरता की छांव !
बन्धुवर अब तो आ जा गांव !
वर्षों से शीतल सुरभित समीर व्यथित , 
मुरझा रहे सुमन खिले बहु रीत ।
हर सांझ सबेरे अनाचार , डूब रही सत्य की नाव ,
बन्धुवर अब तो आ जा गांव !

✍🏻 आलोक पाण्डेय
               (वाराणसी,भारतभूमि)


गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

करना होगा पथ प्रशस्त !

जीवन के सनातन मूल्यों की हो रही दूर्दशा को रोकने का अवबोधन कराती एक  दूरद्रष्टा व्यक्तित्व की कविता -


करना होगा पथ प्रशस्त !


फटे मही-व्योम अंगार मिले ,

कंपित सागर व्यथित तूफान भले ,

सर्वत्र झंझावातों के विषबेल खिले;

शाश्वत जीवन मूल्यों के तार हिले !

हो कंटक राहें चाहे , बेहद क्रूर अशांत व्यस्त ;

दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !

घनघोर अंधेरा हो जाए ,

प्रलय की आंधी फहराए ,

मेघ ज्वाल बरसा जाए ,

दिशाएं आपस में टकराए !

लेकर ऋषियों के दिव्य तेज प्रखर ,

सींचित, युगों से जो व्यक्त-अव्यक्त ;

दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !

विविध षड्यंत्रों को देख-देख,

संस्कृति संकुचित शीघ्र निरेख ,

सभ्यता अकंपित भी भाग्य लेख,

त्वरित खींचने होंगे दृढ़-विभत्स आरेख !

आक्रांताओं के कुटिल नीति से देख ! 

राष्ट्र , आज कैसा विभक्त ;

दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त ! 

दग्ध वन-उपवन सब प्राणी दग्ध दिशाएं ,

दग्ध निर्झर-कूप-तडाग-तटिनी धाराएं ,

दग्ध प्राणवायु ज्योत , विविध स्रोत कलाएं ,

दग्ध सौम्य प्रकृति भव्य छटाएं !

सबकुछ असंतुलित देवभूमि में , 

हाय धरा हो चली संतप्त ;

दुर्निवार जीवन का, करना होगा पथ प्रशस्त !


✍🏻 आलोक पाण्डेय

              (वाराणसी,भारतभूमि)



शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

अश्रु नभ को समर्पित करना !


                अश्रु नभ को समर्पित करना!
_____
घनीभूत घोर घटाएं छाए नील गगन में,
फटे हृदय अविचल हिमगिरि की कम्पन में,
विघटन से छिन्न-भिन्न विकल धरा  आज डोले,
प्रलय के आंसू वृहद निस्सीम व्योम रो ले !
असह्य दु:ख की सिहरन,विरह-वेदना, दुर्निवार बयार पले ;
श्वासों से स्वप्न पराग झरे, पलकों में निर्झरणी मचले ।

दशों दिशाओं में प्रज्जवलित रवि होना चाहे अचल अस्त;
दुर्निवार तूफानों में - रण में भी हो , पग-पग पर पथ प्रशस्त !
रोष की भ्रू-भंगिमा विराट, डोले विस्मित प्रलय  खोले,
उत्तिष्ठ अजेय ! विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले ?
धीर-वीर ,अंगार-शय्या पर मृदुल-कलियां बिछाना ,
ले उर वज्र का, क्षणिक अश्रु-कणिकाओं में नहीं गिराना ।
क्षितिज-भृकुटि पर घिर-धूमिल युग-युग का विषय जनित विषाद,
गुंजित कर दे मही-व्योम, भर दे जग के अंतस् में आत्म निनाद !
दिव्य चेतना प्रकाश बरसाकर,
आत्म एकता में अनिमेष जगाकर ,
स्वाधीन भूमि  ,प्रज्जवलित भूमि की नव्य जागरण लाओ,
बिखरे मन के तम् को कर कुंठित,
अंत: सोपानों में उर्ध्व चढ़ाओ।
मधुर हास-परिहास पलकों से पता अपना हटाकर,
पतझड़ कंटकारी क्षणिकाओं में व्यथा अपनी छुपाकर,
गहन तम् में घिरी चिन्तन भार , सार अर्पित करना ;
अश्रु  नभ को समर्पित करना !

✍🏻 आलोक पाण्डेय 'विश्वबन्धु'

अश्विन शुक्ल सप्तमी

रविवार, 8 सितंबर 2019

सदा बढ़ो तुम !


सदा बढ़ो तुम !
_______

जीवन पथ पर बढ़ते जाओ
 सदा बढ़ो ऊंचे उठो तुम ,
क्षमा दया तप त्याग धैर्य से
बनो दृढ़ निश्चयी, स्वत्व गढ़ो तुम !
हिमालय सी अटल उत्साह लिए
सीखो कहीं भी अडिग होना,
बन हिमगिरि की गंगा सा निर्मल
न विचल होना न निरंतरता खोना !
शुद्ध-विशुद्ध स्वरूप लिए
हो जीवन में जीवंत प्रवाह,
सुख-दुख किनारों में प्रतिक्षण,
पंथि! सुस्थिर सतत् बढ़े जा राह !
तु योद्धा प्रवीर पुण्य धरा के
 दृढ़ विराट कूट दग्ध-ज्वाल हो,
शत्रुहंता , दीनबन्धु ज्ञानी-विज्ञानी
मही-व्योम संचरित शौर्य सनातन, शक्ति-पुंज लिए विशाल हो !
धर्मयुद्ध में तूम्हें पुनः आज, देना होगा भारी मोल ,
वीरों की इस विशुद्ध परंपरा का,
क्या कोई कर पाया तोल ?
तुम पुण्यपथि हो धर्मधरा के
सुकर्मों की पताका लहराते जाना,
यदि राष्ट्र डूबे यदि धर्म डूबे तो,
बन्धु ! अरि-मस्तक धरणी पर चढ़ाते जाना ।
तुम तो हो हे प्रिय , वसुधा के प्रहरी,
जीयो प्राण गंवाकर ;
परमात्म स्वप्रकाश समेटे तूझमें
,
भूधर-पर्वत-सागर !

✍🏻 आलोक पाण्डेय
         (वाराणसी,भारतभूमि)

गुरुवार, 13 जून 2019

कर्तव्यबोध

रुके हो क्यों ?
अभी तक
खोते साम्राज्य,
ध्वस्त पताकाएं,
खंड-खंड होते स्तम्भ,
धुंधली दिशाएं !
नहीं दीख रहा !
दग्ध ज्वालाएं ,
दहकती विभीषिका
प्रकृति विक्षिन्न ,
निकृष्ट अधम विकृतियों की व्यापकता,
घनीभूत पीड़ा सर्वत्र करूण पुकार,
बर्बरों की पशुता साकार !
लूटता समाज , लूटती गलियां
लुटती सौम्य प्रकृति लुटती कलियां
धुंधलाती परिवेश ;
हाय ! कराहता देश !
क्यों हो स्तब्धित  -
और देखने को है दंश ,
भयावहता पूर्ण विध्वंस !

✍🏼 आलोक पाण्डेय

हे रामम् !

हे रामम् !
जन-जन प्रिय रंजन, नयन अभिरामम् ,
परात्पर परब्रह्म परमात्मन् प्रणामम् !
सत्-चित्-आनन्द घट-घट नामं
सर्वस्व सन्निहित त्वमसि प्राणं
दिव्य शौर्य अनन्त वर्धते उत्साहं ,
ध्यानं नित्यं रक्ष-रक्ष हे रामं ।
विक्षेप-उद्वेग  द्वेष विरागं ,
ले हर संतापं हे वीतरागं !
ध्येये ध्यानं तत्तवमसि ध्यानं ,
तप-ओज-तेज संवाहक रामं ।
जन-जन संपोषक रघुवंशनाथं
भारतभूमि भयी वीरान अनाथं ,
संपीडित संकुचित धरा धामं ;
भयावहता बर्बर म्लेच्छक नामं ।
आपदामपहर्तारं दातारं ,
लोकाभिरामं शत्रु विदारं ;
ध्येये ध्यानं नित्यं ध्यानं ;
काल-कराल संहारक रामं ।
निर्वाक् हिमालयं अहो न गंगा उत्कर्षं ,
कम्पित-शोषित किम्स्थितं अद्य भारतवर्षं ,
भानित शौर्य उन्नत अथाह सुह्रद्हर्षं ;
विस्फोटित विध्वंसित 'अरि ' विविध दुर्धर्षं ।
कुटिल द्रोही दस्यु विनाशनं
नमामि विश्वरूपम् पुण्यम् निदिध्यासनम् !
शत्रुहंता हे हरि , हर विविध विलापं ;
ध्येये ध्यानं नित्यं विशुद्धम् रामं !

✍🏻 आलोक पाण्डेय
      ( वाराणसी,भारतभूमि )

मंगलवार, 4 जून 2019

तुम आओ !


     तुम आओ !
________

तुम आओ !
देख पथरीली आंखों का नीर , 
द्रवित हृदयों में पीड गंभीर !
कालाग्नि की दाहकता से 
वत्स टकराओ !
तुम आओ !

हलचल विहीन ज्ञान , निर्विकल्प ज्ञान
निर्विकल्प अवस्था , निर्विकल्प विज्ञान ;
चान्द्रायण तप , कृच्छ , पराक् आदि व्रतों में ,
लगो ! स्वत्व जगाओ ! 
तुम आओ !

स्थूल देह अन्नमय , सन्निहित प्राणमय
अंत:स्थित मनोमय , भीतर प्राणमय ,
पंचकोषों में परस्पर भीतर आनन्दमय ;
अनन्त अखण्ड समाधि लगाओ !
तुम आओ !

‘ घट ’ नाम ‘ घट ’ रूप
‘ पट ’  नाम ‘ पट ’ रूप ,
अनन्त सत्ता , अनन्त आनन्द बोध ,
नाम रूप प्राकट्य अनन्त शोध ;
सत्-चित्-आनन्द-अस्ति , भाति ,
प्रिय उर्ध्व परात्पर ध्यान लगाओ !
तुम आओ !

मल्लिका-मालती-जाती - यूथिका संवहित ,
दिव्य पुष्प प्रफुल्लित , कमल-कमलिनी विकसित् !
शीतल मन्द सुगन्ध पवन संचरित ,
चान्द्रमसी ज्योत्सना सम्यक् विकसित् !
अनन्त आनन्द सर्वत्र मादकता में ,
स्नेह स्पर्श बढ़ाओ !
तुम आओ !

परस्पर सम्मिलन , परस्पर परिरम्भण 
उत्कट उत्कंठा , परस्पर आलिंगन !
सम्प्रयोगात्मक श्रृंगार रस समुद्र में ,
मंगलमय मुखचन्द्र की अधर सुधा बहाओ !
तुम आओ !

                  


सरसी-सरोवरों में , कुमुद-कुमुदनियों में ,
कमल-कमलनियों में , हंस-सारस-कारण्डव आदि विहंगमों में ,
स्निग्ध माधुर्य प्रादुर्भाव कराओ !
तुम आओ !

अमावस्या की अन्धियारी रातों में ,
घनघोर घटा उमड़ रही ,
दादुर ध्वनि सर्वत्र सुहावन‌ लागे ,
दामिनी दमक रही !
मन्द-मन्द शीतल बयार सुगन्धित ,
प्रियतम न वियोग लगाओ !
तुम आओ !

युग-युगान्तरों , कल्प-कल्पान्तरों से संवहित ,
सतत् आनन्द सिन्धु में माधुर्य सार ,
कालान्तर में आज धधकती - कैसा व्यथित सत्य , उद्वेग - विक्षेप उद्गार !
सत्य-न्याय-धर्म , पीड़ितों के प्राण हित ,
दिव्य तेज संवर्धित अथाह शौर्य ले ,
कुटिलों पर काल बरसाओ !
तुम आओ !

✍🏻 आलोक पाण्डेय
             वाराणसी, भारतभूमि

रविवार, 12 मई 2019

                     मां तुझे भूला ना पाया !


माँ!

माँ
एक दिवस मैं रूठा था

बडा ही स्वाभिमानी बन, उऋण हो जाने को
तुमसे भी विरक्त हो जाने को,
त्यागी बन जाने को !
घर त्याग चला कहीं दूर वन को
ध्यानिष्ठ हुआ पर ध्यान नहीं , न शांति होती मन को
यह चक्र सतत् चलता रहा।
पर जननी ! तेरी याद कहाँ भूलता रहा !!
पर नहीं, तप तो करना है;
त्याग धर्म में मरना है,
यह सोच अनवरत् उर्ध्व ध्यान में
हो समाधिस्थ तपः क्षेत्र में,
मन, तन से दृढ हो तप पूर्ण किया
पर नहीं शांति थी ना सुस्थिरता, 

क्या ऐसा अपूर्ण हुआ !!!
बुझा हुआ अब संचित उत्साह था 
नहीं कहीं पूर्ण प्रवाह था ;
अचानक क्षुधा की प्यास लगती
माँ !!!
तेरी कृपा की आस लगती
ममतामयी छाया न भूलती;
        दोपहरी तपी और पाँव जले
        पर कहाँ सघन छाया?
माँ!
तेरी आँचल न भूला पाया; 
हर ओर तुम्हारी थी छाया !

___________

           ✍🏻 आलोक पाण्डेय
                  ( वाराणसी , भारतभूमि )

मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

नमन हे आर्यभट्ट


नमन आर्यभट्ट


ग्रह नक्षत्र सूत्र समेकन नदियों का कल कल निनाद ,
गणित सार ज्योतिष रहस्य करता सदैव हे आर्यभट्ट याद !
है सत्य धरा को तूने शुन्य परिचय ज्ञान दिया ,
सागर की गहराई से अंतरिक्ष ऊंचाई का मान दिया ।
पृथ्वी मान परिक्रमा परिधि को दिखलाया तूने विचित्र ,
 ‘आर्यभट्टीयम’ रचना अमोघ को कैसे दिया साध सुचित्र ।
राष्ट्र गुरु नहीं विश्वगुरु हो , हो भारत की अमर वाणी ;
 युग युग से कीर्ति रहे अमर , हे सुसंस्कृत सभ्यता के प्राणी ।
ग्रह का ज्ञान स्पष्ट परिलक्षित , पाई को तूने साध दिया ,
 खगोल अन्वेषण संधानों से पूरे भूगोल को बांध दिया ।
समस्त भूमण्डल को कर प्रकाशित , किया मेधा शक्ति संपन्न ,
टुकड़े-टुकड़े लुटेरों तंत्र ने आज , हाय ! विघटित कर किया विपन्न ।
दूरदर्शिता विश्व सभ्यता के रक्षक पुन: आओ हे भारत वीर ;
कटुता-विक्षोभ, विघटन मिटाने लाना अतीव सूत्र गंभीर !
हे विप्रश्रेष्ठ ! शत बार नमन ।
अनंत अपार प्रणमन् वंदन !

✍🏻 आलोक पाण्डेय
          वाराणसी,भारतभूमि

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

कहो सत्य कथा विस्तृत

अहो बन्धु ! कहो सत्य कथा विस्तृत
शुद्ध-भाव,उन्नत विचार लेकर हूँ प्रस्तुत
योगिराज की ध्यान सुना दो
या सुना दो जयघोष,
हिमालय सा अटल, हिमगिरी की गंगा सा निर्मल
अहा , कैसा विराट् वीरों का रोष !
वीर विक्रमों का गौरव सत्य का संधान,
सुना दो या कोई ‘विजयध्वज’ का अनुसंधान
जयजयध्वनि प्रतिमन्दिरों का या,
सुना दो शाश्वत अपौरूषेय वेदघोष
ज्वाल्यन्ते करालानी,या पुराणों का शौर्य जय घोष |
सुगंधित तुलसीवनानी सा या खौलते रूधिर-धारा का प्रवाह;
अनल ज्वलन ‘अरि’ विविध का,
परितः प्रस्फुट नीति-न्याय संवाह|
दृश्य न्याय-दर्शन सदा, अवलोक्यते शौर्य संचार
पूरयति सत्य अनेक शतकानी,
व्यतितानी यदि शुद्ध विचार
चन्द्रमण्डल सा धवल परिवेेष्टित ,
मन्ये कथितं तेज उत्कर्ष ;
कालवेग प्रकम्य सतत् वीरों का,
ज्ञायते तेजपुञ्ज हे भारतवर्ष !

अखंड भारत अमर रहे 🚩
वन्दे मातरम् !
जय हिन्दुस्थान हिन्दूभूमि

©

✍️ कवि आलोक पाण्डेय
              वाराणसी ,भारतभूमि

बुधवार, 20 मार्च 2019

वीरन के होली कब कहलाई !

वीरन के होली कहलाई !
__________

जी चाहत हौ , हे सखे ! मन सरोजु बढ़ी जाई ,
घटत-घटत दु:सह दु:ख कटुता , वैरु समूल कुम्हिलाई ।
स्याम सलोने गात सरसमय, चित्त-अनुराग सदा जुड़ जाइ ,
मन-काँचैं नाचे जटिल वृथा , साँचे प्रीत रामु प्रतीति दृढाई !
विकट पीड़ा धरती पर पड़ौ , बिखरे सुखद बसंत सुहाई ,
हे हर ! प्रीत धरौ मन-सदन में , तन की व्याप्त झाईं निराई ।
स्वारथ छोड़ु परमारथु लागे , दें छोड़ कुटिल-कुटिलाई ;
तप से उन्नत आतपु सरै , हरौ अकस-उतपातु ढीठलाई !
अधर धरौं प्रिय के प्रिय पर ,
ओठ पर ओठ पटाई ;
भर-भर आलिंगन फाग विहग के, मृदु स्नेह कपाट सटाई ! 
फाल्गुन के उत्पात श्रृंगारमय , भानित भास्वित भनत शुभाई ;
दृढ़ता-सौम्यता हो सरस सन्निहित , हरितदुरित प्रभात समाई ।
जब - जब वीरोचित रीत-प्रीत भाव के , गीत-संगीत से होली आई ;
भारत के फूलवारी क्यारी में , बन्धु ! सुवासित रंगों की खुशबू समाई ।
   जिहादी नंगा नाचे होली में ,  खटके धर्मांधो के धर्मांतरण कुटिलाई ;
जब तलक ठोकैं बन कराल द्रोहियन के , अहा ! तब वीरन
के इ होली कहलाई !

©

✍️ आलोक पाण्डेय
वाराणसी भारतभूमि

शुक्रवार, 1 मार्च 2019

पाकिस्तानी जनमानस की करूण पुकार



त्राही-त्राही करती मानवता ,
 दशकों से संकुचित दर्द को खोली है ,
आतंकिस्तान की जनमानस सहमी मौन-स्वर में बोली है ।
घाटी में आतंक भयावाह , कैसा क्रूरता का प्रतिरूप खड़ा , 
पशुता को करता साकार , हीन सभ्यता का रूप अडा़ ।
बर्बर है यह समाज  विश्व में , धरती का कालिख कलंक ,
जहां जिहादी नग्न-नाच , होता सदैव इसके अंक ।
पेशावर - कराची सब आतंकित ,
 दग्ध झुलस उठा लाहौर ,
ब्लूचिस्तान से लपटें निकले ,  जलाती गुलाम कश्मीर ( POK ) की पावन छोर ।
अन्दर-अन्दर से सहमे , डूब रहे करके क्रंदन ,
मानवता विकृत हो चुकी कब की , क्रूर प्रहार दासता की बंधन ।
शासक यहां का लंपट , कायर , आतंकों का करता व्यापार
 जनमानस को करता प्रताड़ित , बलात् करता व्याभिचार !
मदरसों में शिक्षा कहां , बलात् होता बलात्कार ,
हाय ! लज्जा की बात बहुत , बहुत मची है चीख-चीत्कार ।
सेना के आतंकों से , हर ओर मची है करूण-पुकार ,
हर सांझ-सबेरा होता यहां , बारूदों गोलों की बौछार ।

नहीं पहनने को चीर-वसन , हैं बहु खाने को लाले ,
धरती बंजर जिहादी खेती से , अब कैसे निज जीवन संभालें !
यहां बसती है हवाओं में दग्ध आतंक लहर की ,
सच पूछो तो हम सहमे - असहाय ,
 कैसे करूं वर्णित जिहादी कहर की ; 
अब आस नहीं दुनिया से , केवल एक निमिष प्रलय-पहर की ,
 मुक्ति चाहती बेबस- कुंठित  आवाम , पाकिस्तानी हर गांव-शहर की ।
झूलस रही बाल कणिकाएं , झुलस रहा हर मृदु यौवन ,
झुलस रहा हर प्रणय आस , कंपित कुंठित हर जीवन ।
विघटित भारत की यह पुण्यभूमि , कितने आहों को झेली है ,
हर प्रहर , आतंकी क्रुर कहर से , सिंधु घाटी भी डोली है ।
लूट रही सतत् सौम्य प्रकृति , लूट चुका हिन्द-तप विहार ,
लूट चुका उन्नत निति-नियामक , लूट चुका विशुद्ध-संस्कार ।
धरती पर कर रही तांडव , आतंक की विविध प्रकार ,
बहु डूब चुका जन-जन जीवन , हे भारत के कर्णधार !
बहुत अशिक्षा में जकड़े हम, दूर तक दिखता कोई मर्ज नहीं ,
हे भारत के वीर सपूत , क्या तेरा कोई फर्ज नहीं !
अंदर से उठता असह्यनीय वेदना , जग उठो हे भारत वीर ,
विश्व शांति मानवता हित , ले कराल प्रलयंकर रूप गंभीर !
निज अस्त्रों का संधान कर , आतंक मुक्त कर दे इस माटी को ,
जय भारती के स्वर से सस्वर संवहित कर दे घाटी को ।
बालाकोट को नष्ट किये , अबकी बार बहावलपुर , लाहौर ;
और आगे सतत् विध्वंस करते जाना , जहां-जहां पनपे आतंक का ठौर !
_____

अखंड भारत अमर रहे !
©
✍️ कवि आलोक पाण्डेय
वाराणसी ,भारतभूमि

शनिवार, 16 फ़रवरी 2019

सुनो सिंहासन के रखवाले !



जम्मू कश्मीर के पुलवामा जिले के अवंतिपुरा में आतंकी हमले में हुतात्मा वीरों के याद में शासनतंत्र को कर्तव्यबोध दिलाती एक कवि की भावपूर्ण कविता –
________________
कविता
——————

कह रहा स्तब्धित खड़ा हिमालय, घुटता रो-रो सिंधु का नीर,
हे भारत के सेवक जगो, क्यों मौन सुषुप्त पड़े अधीर !
क्रुर प्रहार झंझावातों में, जीवन नैया धीरों की डूब गयी,
विस्फोटों को सहते-सहते , जनमानस उद्वेलित अब उब गयी ।
ले उफान गंगा की व्याकुल धारा , छोड़ किनारा उछल रही ;
नर्मदा दुख से आहत हो , युद्ध हेतु दृढ़ सबल दे रही ।
जिहादों से घूट-घुट , हर दिन वीर मरे जाते हैं,
विस्फोटों के धुएं में हर धीर कटे जाते हैं ।
आज वीर मरे जो हैं , धैर्य देश का डोला है ,
शासन की कर्तव्य बोध को जनमानस ने तोला है ।
बिलख रही कुमकुम रोली, बिलख रही नूपुर की झंकार,
बिलख रही हाथों की चूड़ियाँ , हाय ! बिलख रही मृदु कंठ-हार ,
बिलख रही धरा झंझावातों से, बिलख रही नयन नीर-धार ;
बिलख रही कैसी सौम्य सुरम्य प्रकृति , बिलख रही अखंड सौम्य श्रृंगार !
कारगिल की शौर्य पताका , नभोमंडल में डोल रही,
हे भारत के कर्णधार युद्ध कर अब बोल रही !
डोली शौर्य पताका वीर शिवा की, हल्दीघाटी भी डोली है ,
बिस्मिल की गजलें भी डोली , डोली वीर आजाद की गोली है ।
वीरों की माटी की धरती , अपने गद्दारों से डोल रही ;
अकर्मण्य , अदूरदर्शी , सत्तालोलुपों से , कड़क भाषा अब बोल रही !
हे सिंहासन के रखवाले , करो याद कर्तव्य करो विचार ,
सिसक रहा है सारा देश , सर्वत्र मची है करूण पुकार ,
धरणी सीमाओं पर तांडव करती , कैसी मानव की पशुता साकार ;
क्या व्यर्थ जाएगा यह बलिदान या कर पाओगे अमोघ प्रतिकार !
माथे का कलंक भयावह , जगे शौर्य कंटक दंश मिटे ;
शत्रु को धूल-धूसरित कर , फिदायीन जालों के पंख कटे ।
आतंक मिटाने में बाधक , किसी का मत तथ्य सुनो तुम ;
जिहादियों को राख कर दे , स्वाभिमानी उपक्रम चुनो तुम !
महा समर की बेला है , ले पाञ्चजन्य उद्घोष करो ;
शत्रु को मर्दन करने को , त्वरित आर्ष भाव में रोष भरो ।
सेना को आदेश थमा दो , भयावह विप्लव ध्वंस मचाने को ;
अपने गद्दारों सहित समूचे आतंकिस्तान विध्वंस कराने को ।
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अखंड भारत अमर रहे !
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✍🏻 कवि आलोक पाण्डेय
वाराणसी ,भारतभूमि