Translate

बुधवार, 20 मार्च 2019

वीरन के होली कब कहलाई !

वीरन के होली कहलाई !
__________

जी चाहत हौ , हे सखे ! मन सरोजु बढ़ी जाई ,
घटत-घटत दु:सह दु:ख कटुता , वैरु समूल कुम्हिलाई ।
स्याम सलोने गात सरसमय, चित्त-अनुराग सदा जुड़ जाइ ,
मन-काँचैं नाचे जटिल वृथा , साँचे प्रीत रामु प्रतीति दृढाई !
विकट पीड़ा धरती पर पड़ौ , बिखरे सुखद बसंत सुहाई ,
हे हर ! प्रीत धरौ मन-सदन में , तन की व्याप्त झाईं निराई ।
स्वारथ छोड़ु परमारथु लागे , दें छोड़ कुटिल-कुटिलाई ;
तप से उन्नत आतपु सरै , हरौ अकस-उतपातु ढीठलाई !
अधर धरौं प्रिय के प्रिय पर ,
ओठ पर ओठ पटाई ;
भर-भर आलिंगन फाग विहग के, मृदु स्नेह कपाट सटाई ! 
फाल्गुन के उत्पात श्रृंगारमय , भानित भास्वित भनत शुभाई ;
दृढ़ता-सौम्यता हो सरस सन्निहित , हरितदुरित प्रभात समाई ।
जब - जब वीरोचित रीत-प्रीत भाव के , गीत-संगीत से होली आई ;
भारत के फूलवारी क्यारी में , बन्धु ! सुवासित रंगों की खुशबू समाई ।
   जिहादी नंगा नाचे होली में ,  खटके धर्मांधो के धर्मांतरण कुटिलाई ;
जब तलक ठोकैं बन कराल द्रोहियन के , अहा ! तब वीरन
के इ होली कहलाई !

©

✍️ आलोक पाण्डेय
वाराणसी भारतभूमि

शुक्रवार, 1 मार्च 2019

पाकिस्तानी जनमानस की करूण पुकार



त्राही-त्राही करती मानवता ,
 दशकों से संकुचित दर्द को खोली है ,
आतंकिस्तान की जनमानस सहमी मौन-स्वर में बोली है ।
घाटी में आतंक भयावाह , कैसा क्रूरता का प्रतिरूप खड़ा , 
पशुता को करता साकार , हीन सभ्यता का रूप अडा़ ।
बर्बर है यह समाज  विश्व में , धरती का कालिख कलंक ,
जहां जिहादी नग्न-नाच , होता सदैव इसके अंक ।
पेशावर - कराची सब आतंकित ,
 दग्ध झुलस उठा लाहौर ,
ब्लूचिस्तान से लपटें निकले ,  जलाती गुलाम कश्मीर ( POK ) की पावन छोर ।
अन्दर-अन्दर से सहमे , डूब रहे करके क्रंदन ,
मानवता विकृत हो चुकी कब की , क्रूर प्रहार दासता की बंधन ।
शासक यहां का लंपट , कायर , आतंकों का करता व्यापार
 जनमानस को करता प्रताड़ित , बलात् करता व्याभिचार !
मदरसों में शिक्षा कहां , बलात् होता बलात्कार ,
हाय ! लज्जा की बात बहुत , बहुत मची है चीख-चीत्कार ।
सेना के आतंकों से , हर ओर मची है करूण-पुकार ,
हर सांझ-सबेरा होता यहां , बारूदों गोलों की बौछार ।

नहीं पहनने को चीर-वसन , हैं बहु खाने को लाले ,
धरती बंजर जिहादी खेती से , अब कैसे निज जीवन संभालें !
यहां बसती है हवाओं में दग्ध आतंक लहर की ,
सच पूछो तो हम सहमे - असहाय ,
 कैसे करूं वर्णित जिहादी कहर की ; 
अब आस नहीं दुनिया से , केवल एक निमिष प्रलय-पहर की ,
 मुक्ति चाहती बेबस- कुंठित  आवाम , पाकिस्तानी हर गांव-शहर की ।
झूलस रही बाल कणिकाएं , झुलस रहा हर मृदु यौवन ,
झुलस रहा हर प्रणय आस , कंपित कुंठित हर जीवन ।
विघटित भारत की यह पुण्यभूमि , कितने आहों को झेली है ,
हर प्रहर , आतंकी क्रुर कहर से , सिंधु घाटी भी डोली है ।
लूट रही सतत् सौम्य प्रकृति , लूट चुका हिन्द-तप विहार ,
लूट चुका उन्नत निति-नियामक , लूट चुका विशुद्ध-संस्कार ।
धरती पर कर रही तांडव , आतंक की विविध प्रकार ,
बहु डूब चुका जन-जन जीवन , हे भारत के कर्णधार !
बहुत अशिक्षा में जकड़े हम, दूर तक दिखता कोई मर्ज नहीं ,
हे भारत के वीर सपूत , क्या तेरा कोई फर्ज नहीं !
अंदर से उठता असह्यनीय वेदना , जग उठो हे भारत वीर ,
विश्व शांति मानवता हित , ले कराल प्रलयंकर रूप गंभीर !
निज अस्त्रों का संधान कर , आतंक मुक्त कर दे इस माटी को ,
जय भारती के स्वर से सस्वर संवहित कर दे घाटी को ।
बालाकोट को नष्ट किये , अबकी बार बहावलपुर , लाहौर ;
और आगे सतत् विध्वंस करते जाना , जहां-जहां पनपे आतंक का ठौर !
_____

अखंड भारत अमर रहे !
©
✍️ कवि आलोक पाण्डेय
वाराणसी ,भारतभूमि