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रविवार, 30 अगस्त 2020

मंगलमय यह देश कहां मिलने वाला !

 


मंगलमय यह देश कहां मिलने वाला !
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शुचि , दान ,धर्म-सत्कर्म सार का , श्रेय लिए जीवन स्तम्भ ;
क्षमा, दया, धृति ,त्याग ज्ञेय , निष्कंटक ! नहीं कुटिल दंभ !

विद्वता , बल-विक्रम का सिन्धु अपार, सर्वत्र सार ज्ञेय है –
दीपित विधेय जग-जीवन प्रवाह में , रहा अजेय-दुर्जेय है।

पुण्य रश्मियां , शुभ्र संस्कृति, वैदिक स्वर सींचित विहान ;
धवल-धार, मूर्तिमनोरम , हे जन्मभूमि, श्रद्धावनत् प्रणाम !

सुधन्य प्रवीर , हे धर्मप्राण ! हे तपोभूमि के पुण्यधाम ;
सप्तसिन्धु सभ्यता के, उदात्त दर्शन , तूझे प्रणाम !

आज पग-पग पर खण्डित धर्म-धार , सर्वत्र दाह के दु:सह स्वर ;
बड़ी विकट है कालखण्ड , खण्डित भूमण्डल प्रहर-प्रहर !

नदी नाले सिसक रहे , पर्वत-मिट्टी-रेत- पठार ;
सिसक रहे हैं आत्मभाव , न्याय, अहिंस्र, सत्य धार !

भू से खण्डित शैल-शिखर से , सरिता से सागर से ;
घीरे जड़ताओं से , आक्रांताओं से , आच्छादित आहत स्वर से ।

खण्डित सत्कर्म सधर्म प्रखर , शील स्नेह अंतरण से ;
संस्कृति टूट रही द्वीपांतर से , खण्डित नभश्चरण से !

हे धन्य वीर ! यह प्रबल प्रताप, अग्निस्फुलिंग जिला दे ;
मंगलमय यह पुण्य प्रकल्प, भारत को भव्य बना दे ।
अग्नि की लपटें कराल हों , दुर्धर्ष नृत्य रचा दे ;
आक्रांताओं को कर स्तम्भित , धवल-धार रचा दे ।

भू के मानचित्र पर अंकित , सब तिमिर रोष हटाकर ;
विस्तृत विशाल नेत्रों को – भू-नभ तक फैलाकर ।

शत्रु दल में हा-हाकार मचे , पुरा घोष शांति का उठे स्वर ;
धर्म दीप हों सुदीप्त प्रखर , सुदीप्त सनातन भारत भास्वर ।

मंगलमय यह देश धीर ! पुनः कहां मिलने वाला ;
शुभ्र संस्कृतियों पर क्रूर आक्षेप को , कौन यहां सहनेवाला ?

यही सोचकर वीर बलिदानी ! बार-बार मरना होगा ;
स्वाभिमानी स्तम्भों पर , आघात् नहीं सहना होगा ।

✍🏻 आलोक पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’

काशी ! तू अविरल अविनाशी है ।

 काशी ! तू अविरल अविनाशी है।

   

काशी ! तू अविरल अविनाशी है !

शिव शंकर प्रलयंकर के अविमुक्त युक्त विन्यासी है ।

काशी , तू अविरल अविनाशी है !


सूर्योदय की प्रथम प्रभा,
पूर्वाभिमुख सौंदर्यप्राण ;
गंगा की पुष्पोज्जवल धारा,
जन-जन की हरती, कलुषित त्राण !

सप्तपुरी में तीर्थ पावनी,
अतिप्राचीन भव्य सुहावनी !
जहां सभ्यता पायी जय ,
तप-त्याग-पुण्य शीर्ष संचय !

  घाटों की शुचिता सार यहां ,
समरांगण हुंकार यहां ।
सान्ध्य वंदन त्रिकाल प्रहर ,
सर्वत्र प्रवाहित वैदिक स्वर 
विज्ञान यहां करता वंदन ;
लिए , सिर मुकुट माथे चंदन ।

 प्राच्य संस्कृति विख्यात रही ,
स्वधर्म कर्म निष्ण्णात् रही ।
सिद्ध गंधर्वों से सेवित ,
त्रिपथगा से प्रेरित !

भव्य प्रट्टालिकायें विशेष ,
देती उच्चता का संदेश ।
यहां
योग-दर्शन विज्ञान अलौकिक, 
ज्ञानी-विज्ञानी-बटुक-संन्यासी है ,

काशी, तू अविरल अविनाशी है।


ऋग्-यजु-साम-अथर्व गान यहां,
अद्भुत पावन अधिष्ठान यहां ।
कण-कण में शिव विद्यमान ,
विश्वेश्वर की नगरी महान ।

पंचगंगा की अविरल धारा ,
दशाश्वमेध की धवल किनारा ।
वही विलक्षण असि घाट ,
खोज रहा तुलसी के बाट।

सिद्ध तपरत दिग्-दिगंत ,
जीवन्त प्राण , प्राची के मंत्र ।
जीवन यात्रा भष्मीभूत ,
मणिकर्णिका के भभूत ।

क्रूर काल सदा से महाश्मशान में , विभित कम्पित संत्रासी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है।


सप्तार्णव के सार यहां ,
सप्तसिन्धु के धार यहां ।
भव्य वास्तुकला विज्ञान यहां ,
विविध शैली संधान यहां ।
कला के प्राच्य स्वरुप यहां ,
भारत के विविध प्रारुप यहां  ।
ज्ञान विज्ञान के दिव्य-धार ,
लाभान्वित सारा संसार !

उत्तरवाहिनी गंगा धारा ,
समेटी है भारत सारा ।
आस्था के पाले में झूली ,
भष्मीभूत संपुरित धूली ।

अन्नपूर्णा के आधार यहां ,
 विश्व पालक प्राणाधार यहां ।
आचार्य शंकर के संदेश,
अखण्ड निरत भारत देश !

गंग-उर्मियों की अकम्पित, धवल तरंगें , शाश्वत मुक्ति के वासी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है।



काशी ! तू अविरल अविनाशी है।

विक्रमण से दग्ध हुई , वरुणा- असि की धार यहां;
रुग्ण हुई सरिता धारा, चीर संस्कृतियों के सार यहां,
सभ्यता कराह उठी है, आर्त्त भाव भर विकल बांह ;
रुद्रवास अविमुक्त धरा पर , यह विषाक्त भवितव्य ! आह ।
मन्दिर विग्रह सब टूट रहे ,
सहस्त्रभाग्य सनातन फूट रहे ।
अतिक्रमित हैं वैदिक स्वर -
अनन्त काल से ध्वनित प्रखर ।

इनसे ही स्वार्थ- परमार्थ है -
भारत ही इनसे भारत है ।

अब कम्पित है कण्ठ-गीत ,
जीवन के शाश्वत संगीत ।

घाटों पर गुलछर्रे दिन-रात ,
संस्कृतियों पर प्रतिपल संघात्।
पाणिनी के अष्टाध्यायी सूत्र ,
सब बिखेर रहे हैं - मल-मूत्र !

वेद मंत्रों के भान कहां ,
कर्कश ध्वनित अजान यहां !
 कलुषित कलंक कहां सुहाती -
यह देख सदा फटती छाती !

तेरी शुचिता के साथ हुआ नर का व्यवहार विनाशी है ;

काशी ! तू अविरल अविनाशी है ।


✍🏻   पण्डित आलोक पाण्डेय ‘ विश्वबन्धु ’
                 वाराणसी , भारतभूमि ।
         भाद्रपद शुक्ल वामन द्वादशी , वि. सं. २०७७