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गुरुवार, 13 जून 2019

कर्तव्यबोध

रुके हो क्यों ?
अभी तक
खोते साम्राज्य,
ध्वस्त पताकाएं,
खंड-खंड होते स्तम्भ,
धुंधली दिशाएं !
नहीं दीख रहा !
दग्ध ज्वालाएं ,
दहकती विभीषिका
प्रकृति विक्षिन्न ,
निकृष्ट अधम विकृतियों की व्यापकता,
घनीभूत पीड़ा सर्वत्र करूण पुकार,
बर्बरों की पशुता साकार !
लूटता समाज , लूटती गलियां
लुटती सौम्य प्रकृति लुटती कलियां
धुंधलाती परिवेश ;
हाय ! कराहता देश !
क्यों हो स्तब्धित  -
और देखने को है दंश ,
भयावहता पूर्ण विध्वंस !

✍🏼 आलोक पाण्डेय

हे रामम् !

हे रामम् !
जन-जन प्रिय रंजन, नयन अभिरामम् ,
परात्पर परब्रह्म परमात्मन् प्रणामम् !
सत्-चित्-आनन्द घट-घट नामं
सर्वस्व सन्निहित त्वमसि प्राणं
दिव्य शौर्य अनन्त वर्धते उत्साहं ,
ध्यानं नित्यं रक्ष-रक्ष हे रामं ।
विक्षेप-उद्वेग  द्वेष विरागं ,
ले हर संतापं हे वीतरागं !
ध्येये ध्यानं तत्तवमसि ध्यानं ,
तप-ओज-तेज संवाहक रामं ।
जन-जन संपोषक रघुवंशनाथं
भारतभूमि भयी वीरान अनाथं ,
संपीडित संकुचित धरा धामं ;
भयावहता बर्बर म्लेच्छक नामं ।
आपदामपहर्तारं दातारं ,
लोकाभिरामं शत्रु विदारं ;
ध्येये ध्यानं नित्यं ध्यानं ;
काल-कराल संहारक रामं ।
निर्वाक् हिमालयं अहो न गंगा उत्कर्षं ,
कम्पित-शोषित किम्स्थितं अद्य भारतवर्षं ,
भानित शौर्य उन्नत अथाह सुह्रद्हर्षं ;
विस्फोटित विध्वंसित 'अरि ' विविध दुर्धर्षं ।
कुटिल द्रोही दस्यु विनाशनं
नमामि विश्वरूपम् पुण्यम् निदिध्यासनम् !
शत्रुहंता हे हरि , हर विविध विलापं ;
ध्येये ध्यानं नित्यं विशुद्धम् रामं !

✍🏻 आलोक पाण्डेय
      ( वाराणसी,भारतभूमि )

मंगलवार, 4 जून 2019

तुम आओ !


     तुम आओ !
________

तुम आओ !
देख पथरीली आंखों का नीर , 
द्रवित हृदयों में पीड गंभीर !
कालाग्नि की दाहकता से 
वत्स टकराओ !
तुम आओ !

हलचल विहीन ज्ञान , निर्विकल्प ज्ञान
निर्विकल्प अवस्था , निर्विकल्प विज्ञान ;
चान्द्रायण तप , कृच्छ , पराक् आदि व्रतों में ,
लगो ! स्वत्व जगाओ ! 
तुम आओ !

स्थूल देह अन्नमय , सन्निहित प्राणमय
अंत:स्थित मनोमय , भीतर प्राणमय ,
पंचकोषों में परस्पर भीतर आनन्दमय ;
अनन्त अखण्ड समाधि लगाओ !
तुम आओ !

‘ घट ’ नाम ‘ घट ’ रूप
‘ पट ’  नाम ‘ पट ’ रूप ,
अनन्त सत्ता , अनन्त आनन्द बोध ,
नाम रूप प्राकट्य अनन्त शोध ;
सत्-चित्-आनन्द-अस्ति , भाति ,
प्रिय उर्ध्व परात्पर ध्यान लगाओ !
तुम आओ !

मल्लिका-मालती-जाती - यूथिका संवहित ,
दिव्य पुष्प प्रफुल्लित , कमल-कमलिनी विकसित् !
शीतल मन्द सुगन्ध पवन संचरित ,
चान्द्रमसी ज्योत्सना सम्यक् विकसित् !
अनन्त आनन्द सर्वत्र मादकता में ,
स्नेह स्पर्श बढ़ाओ !
तुम आओ !

परस्पर सम्मिलन , परस्पर परिरम्भण 
उत्कट उत्कंठा , परस्पर आलिंगन !
सम्प्रयोगात्मक श्रृंगार रस समुद्र में ,
मंगलमय मुखचन्द्र की अधर सुधा बहाओ !
तुम आओ !

                  


सरसी-सरोवरों में , कुमुद-कुमुदनियों में ,
कमल-कमलनियों में , हंस-सारस-कारण्डव आदि विहंगमों में ,
स्निग्ध माधुर्य प्रादुर्भाव कराओ !
तुम आओ !

अमावस्या की अन्धियारी रातों में ,
घनघोर घटा उमड़ रही ,
दादुर ध्वनि सर्वत्र सुहावन‌ लागे ,
दामिनी दमक रही !
मन्द-मन्द शीतल बयार सुगन्धित ,
प्रियतम न वियोग लगाओ !
तुम आओ !

युग-युगान्तरों , कल्प-कल्पान्तरों से संवहित ,
सतत् आनन्द सिन्धु में माधुर्य सार ,
कालान्तर में आज धधकती - कैसा व्यथित सत्य , उद्वेग - विक्षेप उद्गार !
सत्य-न्याय-धर्म , पीड़ितों के प्राण हित ,
दिव्य तेज संवर्धित अथाह शौर्य ले ,
कुटिलों पर काल बरसाओ !
तुम आओ !

✍🏻 आलोक पाण्डेय
             वाराणसी, भारतभूमि